Last modified on 30 मार्च 2017, at 11:03

मोंगरे की खुशबू में लिपटी है पिता की देह / कर्मानंद आर्य

मोंगरे की खुशबू में लिपटी है पिता की देह
देह से उठ रहा है लावा
आग फैल रही है चारो तरफ
जल रहे हैं लोग
धधक रहे हैं अधूरे ख्वाब
आसमान का कालापन आँख के नीचे उतर रहा है
धीरे धीरे
वे जो उनकी मुस्कानों के आदी थे
खो गए कहीं
वे जो कहते थे -सुन्दर है तुम्हारी आवाज
खो गए कहीं
वे जो मर जाया करती थी अनायास
वे माएं जाने कहाँ चली गईं
खुशबू उठ रही है मोगरे की
पिता उठ रहे हैं
ऊपर ऊपर ऊपर