Last modified on 21 अप्रैल 2014, at 23:47

मोड़ / नरेश चंद्रकर

तुम गन्ध की तरह फैल गई हो
सैकड़ों स्पर्श पड़े हैं स्मृतियों में
खूब अगिन चुम्बन फैल गए हैं
रोओं के असँख्य छुअन हमारे पास हैं अब

तुम रास्ता न था इसलिये नहीं आईं इधर तक
रास्ते तो अब बने हैं
तुम्हारे और मेरे पद-चिह्नों से
हमारी अनगिन छोड़ी इच्छाओं और अधूरी छोड़ी गई नींदों से

तुम सच में भी
चलते हुए रास्ते को अधूरा छोड़कर नहीं आईं इधर

बाक़ायदा मोड़ लिया है !!