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मोन: किछु कविता / ज्योत्स्ना चन्द्रम्

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1
इच्छा मृत्यु तँ सहज छैक
सुविधाप्रद सेहो
मुदा, इच्छा
सेहो मृत्युक
कतेक दुःसाध्य
आ कष्टकर होइछ
क्यो पूछए
इच्छा-मृत्युक कामना कएनिहार
आ वरदान पाबि लेनिहार सँ !
सुख आ शांतिक कामना ल’
चाहने छल मोन पलायन
परिवेश, परिवार आ परिजनसँ
पओलक मुदा
अशान्ति, दिग्भ्रान्ति
लक्ष्य अपन पाबि लेलाक बाद

2
घरक भीड़मे फुलाइत हँसी
गुम भ’ जाइछ
एकान्तकें पबिते
ढेर रास प्रश्नक पाछू
नहि जानि किएक
हम बुझि नहि पओलहुँ एखन धरि
खुशीसँ चमकेत आँखिमे
किएक पसरि अबैत अछि शून्यता
आ स्वस्थ प्रसन्न आकृति
बनि जाइत अछि मरूथल सन वीरान !
ककरा सत्य मानए मोन
भीड़क एक हिस्सा
हँसैत-मुस्कैत ओहि आकृतिमें, आकि
हेराएल-औंघाएल सन
मिझाएल-मौलाएल
ओहि एकांतकें !

3
तनक दुख
मोनक दुख
दुनू तँ दुखे अछि
मुदा एक लगैछ वास्तवित
आ दोसर
कल्पित, कृत्रिम आ अर्जित सन
कोन कहए क्यो, जे
ओकर इलाज तँ
सूइ आ औषधि सेहो छैक
मुदा एकर ?
ई त’ लाइलाज अछि
तें भरिसक
मोनक दुखी रोगीकें
बताह कहि दैत अछि समाज !

4
सादा पन्ना पर
उकेरल गेल आकृति
साफ-स्पष्ट भेल करैत अछि।
जकरा चाही, तँ मेटा सेहो सकैत छी
अथवा, राखि सकैत छी
सदा-सर्वदाक लेल।
मुदा, ओही पन्नाक ऊपर
उकेरल आकृति पर
उकेरल जाए जँ फेर कोनो आकृति
सायास वा अनायास
तँ तकरा कोना मेटाओल जाए
वा राखल जाए जोगा क’ ?
किएक तँ
परस्पर ओझराएल ई आकृति सभ
अस्पष्ट-धूमिल भ’ उठैछ
आ, एककें मेटौने
दोसरो मेटाएल-मेटाएल सन देखाइछ
आ तखन रहि जाइछ
ई ओझराएल,
अस्पष्ट आकृति, आ द्वन्द्वग्रस्त पन्ना
ककरा मेटाबए वा कोना
दुनूमे सामंजस्य बैसाबए मोन ?

5
नारीके मानलनि सभ
वशीकरणक प्रतीक
केहन विडम्बना ! केहन अछि ई त्रासदी
इहए नारी
रहलि सदा वशीभूत
कखनो भावनाक
कखनो बलसँ
कखनो छलसँ
मुदा बनलि रहलि
परवश, विवश...
केहन अछि ई मोन !

6
कहि दियौ शब्दसँ
नहि आबए हमर बीच
दू आँखिक गुमसुम भाषा
कतहु रूसि ने रहए ओकर आवाजसँ
ठोरक कम्पन
लजा क’ नुका ने रहए कतहु पड़ा क’
रोम-रोमक हाक
दबि ने जाए एकर भारसँ
एखन तँ बहुत किछु शेष अछि
बहुत किछु कहबाक अछि
बहुत किछु सुनबाक अछि
अपन एकान्तक स्वरमे
सजएबाक अछि सपना
सोहरएबाक अछि घाव
भरिसक फेर
शान्त, सुन्दर, स्नेहिल
ई क्षण आबए, ने आबए
आउ ने,
मोन सीपमे बन्न क’
मोती सन दमक’ दी एकरा !