भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोमबत्ती / जय गोस्वामी / उत्पल बैनर्जी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसी रात कि जड़ें भी आवाज़ करने लगी हैं
ऐसा किनारा कि ज़ंजीरों की चोट से चीख़ रहा है पानी
बाँह ऐसी कि मरकर भी मुट्ठी में भींचे हुए भाला
ऐसा पात्र कि छोटा होकर भी सोख लेता है सारी हवा
केवल एक ही झलक में फोड़ देती है ग्लेशियर.. चिनगारी ऐसी
ऐसी बिजली की लम्बी उँगलियों से खरोंच देती है आसमान
ऐसा ताबूत कि निश्चल होकर भी जीवित हो उठा पलभर में

तीखी और फुसफुसाहट भरी लेकिन बंद नहीं होती, ऐसी चीख़
धीरे-धीरे झर रहे हैं शान्त, सुलानेवाले पँख
सिर्फ़ एक प्रवाह को सम्बल बनाकर उठ खड़ी हुई है हवा
पेड़ का एक भी पत्ता नहीं हिल रहा
उसके नीचे पड़ी हुई है लम्बी ज़ंजीर
साँप का फटा हुआ फन और कमल की पंखुड़ियाँ

दिगन्त तक फैली इस्पात की पात
और उसके ऊपर जानवरों की साँसें

इसके बाद ज़हरीले शहद और तेल के सिवा मुझे कुछ नहीं पता
मुझे कुछ भी नहीं पता भूगर्भ के काले हृत्पिण्ड के सिवा
जिसे एक दिन उखाड़ कर मैंने रख दिया था
अपने पीछेवाले ताल में
जिससे पैदा हुई थी प्रचुर जलकुम्भियाँ, काई और छोटे पौथे
पानी के तमाम कीट —
वह हृत्पिण्ड भी अपने चारों ओर के
घने और जकड़े हुए प्राणों को भेदकर
बुलबुलों की तरह उभर आता है
मेरे घर के सामने की
छोटी-सी ज़मीन के ऊपर की हवा में भासमान

रात भर धक-धक धड़कता है —
मुझसे कहता है — 'वह तो चमचमाती सफ़ेद मोमबत्ती
तुम्हारे घर में जल रही है
वह असल में इनसानों की जमी हुई चर्बी से बनी है।’

तभी मोमबत्ती अचानक टेबल से छलाँग लगा
शून्य में उठ कर बड़ी होने लगी
उसे दो हाथ मिल गए
दो ओर से निकल आए दो पैर भी
कन्धे के ऊपर उसका लम्बा-सा सिर
पीले रँग की लौ-सा जलता रहा
उसकी देह पर धीरे-धीरे उभर आए कुछ दाग़ — पतले, मोटे, लम्बे
वे क्या चाबुक के दाग़ थे?

उन दाग़ों में से किसी में
मुझे दिखाई दी बहुत प्राचीन और लुप्त कोई नदी
तो किसी में चौड़े रास्ते
अभिजात पुरुष और स्त्रियों की चहलपहल
आकाशचुम्बी प्रासाद के शिखर
दुर्गम सँकरे तकलीफ़देह पहाड़ी रास्ते
जिनसे होकर सैकड़ों जरख़रीद ग़ुलाम
अपने मालिकों के लिए
सोने के घड़ों में भर-भरकर शहद ला रहे थे

उनके साथ-साथ चल रहा था घोड़े पर सवार
कवच पहना कुत्ते के मुँहवाला सेनापति
इसके बाद उभर आया एक डबरा
उसके भीतर तैर रहे थे पँखोंवाले विचित्र मगरमच्छ

उनके अण्डे सूख रहे थे रेत पर
रेत पर झिलमिल करता एक साँप आगे बढ़ आया
और फिर गड्ढे में छिप गया;
उसी रेत में चित पड़ा हुआ था एक कंकाल
हाथ-पैरों में उसके ज़ंजीर के गहने थे

अचानक उठ खड़ा हआ वह हड्डियों का ढाँचा
और मैंने गौर किया
क्रमश: छोटी और दुबली होने लगी थी उसकी देह
सफ़ेद और चमचमाते मोम से ढँकी जा रही थीं बदरँग हड्डियाँ
फिर ज़ंजीरों में जकड़े उसके दोनों पैर
तेज़ी से खिर गए
और दोनों हाथ भी

उसका बचा हुआ शरीर डोलता-डोलता
मेरी टेबल के बत्तीदान पर उतर आया
बिना किसी कम्पन के जलती रही लम्बे चेहरे-जैसी शिखा...

ताल के पीछे मकान ढहा हुआ
उसके पास वाले बड़े पेड़ की टहनियों से
निकलने लगे हैं जुन्हाई के पतले धागे
उस मकान की छत पर
धुएँ के देवता और कुहासे की देवी
छिप-छिपकर मिलने उतर आते हैं

ठीक तभी हिल उठती है ताल की जलकुम्भियाँ
उठने लगते हैं बुलबुले
और धक-धक रुकने का नाम नहीं लेती —

मेरी खिड़की के सामने की हवा में
उभर आया है भूगर्भ का काला हृदय
मुझसे कह रहा है — 'ये तमाम नक्षत्र असल में पत्थर के हैं ।

इसी बीच उनकी देह रात के अन्तिम पहर में
अल्फ़ा सेन्चुरी का एक पत्थर
तुम्हारे उस केले के पेड़ तले आ गिरेगा ।

लेकिन तुम अपने टेबल की मोमबत्ती ऊपर उठाकर
जानकारी ले सकते हो कि
कितनी बड़ी चट्टान के गिरने की सम्भावना है
क्योंकि एकमात्र उस मोमबत्ती का उजाला ही
एक साल से भी पहले वहाँ पहुँच सकता है
और लौट भी सकता है —

तभी मैंने उस मुण्ड-जैसी शिखा
या कि शिखा-जैसे मुण्ड को
हाथ के थपेड़े से बुझा दिया
उस पल उस ताल और ढहे हुए मकान को घेरती
धुएँ के देवता और कुहासे की देवी को डुबोकर
क्रमश: उभरन लगी
ऐसी रात जब जड़ें आवाज़ करने लगती हैं

ऐसा क्षुब्ध किनारा कि जहाँ
ज़ंजीरों की चोट से चीख़ रहा है पानी
बाँह ऐसी कि मरकर भी मुट्ठी में भींचे हुए है भाला
ऐसा पात्र कि छोटा होकर भी सोख लेता है सारी हवा
केवल एक ही झलक में फोड़ देती है ग्लेशियर... चिनगारी ऐसी

ऐसी बिजली कि लम्बी उँगलियों से खरोंच देती है आसमान
ऐसा ताबूत कि निश्चिल होकर भी जीवित हो उठा पलभर में
तीखी और फुसफुसाहट भरी लेकिन बन्द नहीं होती, ऐसी चीख़
पँख शान्त, सुलानेवाले

सिर्फ़ एक प्रवाह को सम्बल बनाकर
उठ खड़ी हुई है हवा
पेड़ का एक भी पत्ता नहीं हिल रहा
उसके नीचे पड़ी हुई है लम्बी ज़ंजीर
साँप का फटा हुआ फन और कमल की पँखुड़ियाँ

मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी