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मोमिन / परिचय

हक़ीम मोमिन ख़ान 'मोमिन' मुग़ल काल के अंतिम दौर के शाइर थे। वह मिर्ज़ा ग़ालिब व ज़ौक़ के समकलीन थे और बहादुर शाह ज़फ़र के मुशायरों में भाग लेने लालक़िले जाया करते थे। वह अत्यंत भावुक और संवेदनशील शायर थे।

आमतौर पर उनकी पूरी शायरी शृंगार रस से भरी हुई है। इश्क़ और मुहब्बत से सम्बद्ध नज़्मों और ग़ज़लों में उन्होंने बहुत ही नाज़ुक व मधुर भाषा का इस्तेमाल किया है। उनके कई शे'र आज भी वक़्त-ज़रूरत मुहावरे के रूप म एं बोले जाते हैं। वह मुशायरों में तरन्नुम के साथ अपनी रचनाएँ पढ़ते थे। उनके स्वर में गज़ब का लोच था। रचनाओं में विलक्षण उपमाएँ व अलंकार पिरोकार वह श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। इसके अलावा उनका एक शे'र दिया जा रहा है जिसमें उन्होंने बड़ी मासूमियत से अपनी माशूक़ा से शिकायत की है:

मैंने तुमको दिल दिया, तुमने मुझे रुसवा किया
मैंने तुमसे क्या किया और तुमने मुझसे क्या किया

आपका एक शे'र मुलाहिज़ा फरमाएँ, जिससे मिर्ज़ा ग़ालिब इस क़दर प्रभावित हुए कि इस शे'र के बदले अपना सारा दीवान 'मोमिन' को देने की पेशकश की थी:

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता

सच तो यह है कि वह अपने समकालीनों में शृंगार रस के महारथी शायर थे। इस मामले में आज के दौर में भी उनका कोई सानी नहीं।

मोमिन उच्चकोटि के शायर तो थे ही आला दर्ज़े के हक़ीम, ज्योतिष और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। उनके पुरखे मूलत: कश्मीर से थे। दिल्ली में जब शा आलम गद्दीशीन था, तब उनके दादा दिल्ली आकर बस गये थे। हक़ीमी इनका ख़ानदानी पेशा था, इनका दादा और पिता शाही हक़ीम थे।

मोमिन का दिल्ली में सन 1800 में जन्म हुआ था उनकी आरम्भिक शिक्षा अरबी में हुई थी। वह कुशाग्र बुद्धि के थे और उनकी स्मरणशक्ति भी विलक्षण थी। हक़ीमी उन्हें विरासत में मिली ही थी।

मोमिन को शायरी करने का शौक़ बचपन से ही था। जवानी में तो यह जुनून की हद तक जा पहुँचा था। उनका मिजाज़ आशिक़ाना था, जो उनकी शायरी में झलकता भी है। इश्क़-मोहब्बत की रचनाएँ लिखते समय उपमाओं व अलंकारों के ऐसे नगीने पिरोते थे कि कही गयी बात दिल की गहराइयों को छू जाती है। आशिक़ की भावनाओं को अभिव्यक्ति देते समय उनकी कल्पना शक्ति धरती-आकाश के कुलाबे मिला देती है।

मोमिन ने शुरुआती दौर में अपना उस्ताद शाह नसीर को बनाया था। लेकिन बाद में उन्हें छोड़ दिया, फिर कभी किसी को उस्ताद नहीं किया।

मोमिन दिल्ली के वासी थे। ज़ौक़ की तरह वह भी दिल्ली की गलियाँ छोड़कर जाने को तैयार नहीं थी, दिल्ली की भाषा की सारी नज़ाक़त उनकी शायरी में नज़र आती है।

मोमिन स्वाभिमानी और संस्कारी थे। उन्हें सबकी इज्जत और प्यार हासिल था। उन्होंने अपनी मृत्यु की भविष्यवाणी ख़ुद ही की थी। वह अच्छे ज्योतिष तो थे ही, अत: उन्होंने बताया कि अब से पाँच दिन, पाँच सप्ताह, पाँच महीने अथवा पाँच वर्ष के बाद मैं दुनिया से कूच कर जाऊँगा। इस भविष्यवाणी के ठीक पाँच महीने बाद उनका इंतकाल हो गया।

शायद मोमिन जानते थे कि जन्नत जाने पर उनका क्या हश्र होगा, इसलिए उन्होंने लिखा:
मुझे जन्नत में वह सनम न मिला
हश्र और एक बार होना था