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मोर को मुकुट सीस भाल खौरि केसर की / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

मोर को मुकुट सीस भाल खौरि केसर की ,
लोचन विशाल लखि मन उमहत है ।
मैन कैसे केश श्रुति कुँडल बखत बेस ,
झलक कपोल लखि थिर ना रहत है।
कुलकानि धीरज मलाह मतवारे दोऊ ,
मदन झकोर तन तीर ना गहत है ।
श्याम छवि सागर मे नेह की लहर बीच ,
लाज को जहाज आज बूढ़न चहत है ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।