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मोहब्बत किस क़दर यास-आफ़रीं मालूम होती है / चराग़ हसन हसरत

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मोहब्बत किस क़दर यास-आफ़रीं मालूम होती है
तेरे होटों की हर जुम्बिश नहीं मालूम होती है

ये किस आस्ताँ पर मुझ को ज़ौक़-ए-सज्दा ले आया
कि आप अपनी ज़बीं अपनी ज़बीं मालूम होती है

मोहब्बत तेरे जलवे कितने रंगा-रंग जलवे हैं
कहीं मससूस होती है कहीं मालूम होती है

जवानी मिट गई लेकिन ख़लिश दर्द-ए-मोहब्बत की
जहाँ मालूम होती थी वहीं मालूम होती है

उम्मीद-ए-वस्ल ने धोके दिए हैं इस क़दर ‘हसरत’
कि उस काफ़िर की हाँ भी अब नहीं मालूम होती है