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मौत और घसियारा / गोपालबाई

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किसी गाँव में इक घसियारा रहता था किसमत का मारा।
बेटे-बेटी जोड़ू जाता। कोई न थे, अल्ला से नाता॥
पर जब पापी पेट न माना। उसने घास छोलना ठाना।
ठीक दुपहरी जेठ महीना। सिर से पावों बहा पसीना॥
बुड्ढा लगा खोदने घास। हाय पेट यह तेरे त्रास।
खोद-खोदकर बोझ बनाया। थोड़ी दूर उसे ले आया॥
पर जब थककर हुआ बेहाल। बोझ पटक रोया तत्काल।
होकर दुखी लगा चिल्लाने। ‘‘मौत गयी तू कहाँ, न जाने॥
अरी मौत तू आजा-आजा। मुझ पर ज़रा रहम तू खाजा।
दया मौत को उस पर आई उसने अपनी शकल दिखाई॥
बोली- ‘‘बुड्ढे! कहो क्या कहता। क्यों नहीं कर्म-भोग तू सहता’’॥
आगे देख मौत घसियारा। सिटपिटाय रह गया बिचारा।
पर फिर बोला सोच-बिचार। ‘‘देवी तुम्हीं जगत्-आधार॥
बड़ी कृपा की तुमने मात। मुझ बूढ़े की सुन ली बात।
मैंने इसको कष्ट दिया है। बोझ घास का बाँध लिया है॥
फिर मुझसे नहिं जाय उठाया। इससे माता तुम्हें बुलाया।
आप लगा दे नेक सहारा। इतना ही बस काम हमारा’’॥