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मौन भटकते गीतों को / मधु प्रधान

मौन भटकते गीतों को
यदि तुम वंशी का स्वर दे दो॥

मैं व्यथा कहूँ कैसे अपनी
उन्मन मन की क्या अभिलाषा
भावों के भटके हुये शलभ
जलना यौवन की परिभाषा

बन बिन्दु रीतते जीवन को
मधु सुधियों की गागर दे दो॥

भीगी पलकों की छाया में
सोये सुख सपने मचल-मचल
गन्ध भरी अमराई में
मत्त भ्रमर जैसे आकुल

सुरभि बाँध लूं आँचल में
यदि कलियों का कोहबर दे दो॥

बौराई कोकिल की कुहुकन
ने छेड़ा मन के तारों को
आशा के कच्चे धागों से
बाँधा है दिन बंजारों को

मद भरी फागुनी रातों को
सपनों का सोन शिखर दे दो