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मौसमेगुल उधर सुहावन है / रामगोपाल 'रुद्र'

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मौसमे गुल उधर सुहावन है;
बस, इधर ही झड़ी है, सावन है!

क्या थी उम्मीद और क्या पाया
बलि हुए हम, बना वह बावन है!

रात का रंज कम न था हमको;
दिन तो अब और भी भयावन है!

खैर क्या पूछते हो गुलशन की?
बागबाँ ख़ुद ही अगलगावन है!

फूँक दे! तापने को ही तो है!
घोंसला-घोंसला जलावन है!

कहता है पीना है तो यूँ पीओ;
खूब नासेह की सिखावन है!

क्रान्‍ति अब इससे बढ़के क्या होगी?
राम राजा, वज़ीर रावण है!

सड़ गई लाश किस दधीची की?
गीध हैं मस्त क्या जिमावन है!

कुत्‍ते जूझेंगे ऐसा, क्या खाकर?
जैसी इन पंचों की जुझावन है!