http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%8C%E0%A4%B8%E0%A4%AE,_%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A4%AF_%E0%A4%A5%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%97_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A8&feed=atom&action=historyमौसम, जिनका जाना तय था / पराग पावन - अवतरण इतिहास2024-03-29T06:50:35Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AE%E0%A5%8C%E0%A4%B8%E0%A4%AE,_%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE_%E0%A4%A4%E0%A4%AF_%E0%A4%A5%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%97_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A8&diff=291358&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पराग पावन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया2021-08-21T20:39:12Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पराग पावन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया</p>
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<poem><br />
शरद की एक दुपहर<br />
मुस्कुराती धूप की छाया में<br />
मटर के जिन फूलों से<br />
मैंने तुम्हारी अँजुरियों का वादा किया था<br />
वे मेरा रास्ता रोकते हैं<br />
<br />
एक दिन<br />
कुएँ के पाट पर नहाते बखत<br />
तुम्हारे कन्धे पर मसल दिया था पुदीना<br />
वहीं पर ठहरा रह गया मेरा हरा<br />
आज विदा चाहता है<br />
<br />
ज़मीन के जिस टुकड़े पर खड़ी होकर<br />
मेरे हक़ में तुम ललकारती रही दुनिया को<br />
उसे पृथ्वी की राजधानी मानने की तमन्ना<br />
अब शिथिल हो चुकी है<br />
<br />
मेरे लिए<br />
गाली, गोबर और कीचड़ में सनी बस्ती लाती बरसात के लिए तुमने कहा —<br />
नहीं, देखो इस तरलता में मजूर के दिल जितना जीवन है !<br />
तपिश के बुलावे पर बरखा का आना देखो !<br />
<br />
…और फिर<br />
पुरकशिश पुश्तैनी थकान के बावजूद<br />
एक दिन मैं प्यार में जागा<br />
जागता रहा…<br />
<br />
मेरी बरसात को बरसात बनाने के लिए उच्चरित शुक्रिया<br />
तुम्हारी भाषा में शरारत है<br />
मेरी रात को रात बनाने के लिए दिया गया शुक्राना<br />
मेरी भाषा में कुफ़्र होगा<br />
<br />
जाओ प्रिय,<br />
जलकुम्भी के नीले फूलों को<br />
तुम्हारे दुपट्टे की ज़रूरत होगी<br />
पके नरकट की चिकनाई<br />
तुम्हारे रुख़सारों की आस में होगी<br />
जुलाई में जुते खेतों की गमक<br />
तुम्हे बेइन्तहा याद कर रही होगी<br />
समेटे लिए जाओ अपनी हँसी<br />
रिमझिम फुहारों के बीच<br />
बादल चमकना भी तो चाहेंगे<br />
<br />
जाओ प्रिय,<br />
<br />
मैं तुम्हें मुक्त करता तो लोग तुम्हें छिनाल कहते<br />
मैं ख़ुद को मुक्त करता तो लोग मुझे हरामी कहते<br />
दोनों को बीते हुए से बाँधकर<br />
मैंने प्यार को मुक्त कर दिया<br />
…जाओ प्रिय<br />
<br />
अब बीते हुए की गाँठ के अतिरिक्त<br />
रतजगे का तजुर्बा तुम्हारा दिया सबक है<br />
अब हाड़तोड़ थकान के बावजूद<br />
हर तरह की रात में<br />
हर तरह की नींद से<br />
हिम्मत भर समझौता करूँगा<br />
और ताज़िन्दगी इसे सबसे पहली और आख़िरी<br />
ज़िम्मेदारी मानता रहूँगा<br />
<br />
चली जाओ प्रिय !<br />
</poem></div>अनिल जनविजय