मौसम बदल गया है तो तू भी बदल के देख
क़ुदरत का है उसूल ये साथ इसके चल के देख
रुस्वाइयाँ मिली हैं, ज़लालत ही पायी है
अब लड़खड़ाना छोड़ ज़रा-सा सँभल के देख
छल-छद्म से तो आज तलक कुछ न बन सका
साँचे में हक़परस्ती के इक बार ढल के देख
निकला जो शब की कोख से वो पा गया सहर
उठ,फ़िक्रो-फ़न के ग़ार से तू भी निकल के देख
बरसों से तेरे ज़ुल्मो-सितम थे रवाँ-दवाँ
पाँवों से एक फूल तो अब के कुचल के देख
हर युग में की हैं नर्मदिलों ने ही नेकियाँ
ऐ संगदिल, तू बर्फ़ की सूरत पिघल के देख
चौपाई, दोहा, कुण्डली छाये रहे बहुत
'दरवेश' अब कलाम में तेवर ग़ज़ल के देख