Last modified on 27 जून 2017, at 14:08

म्हूं / मोहन पुरी

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:08, 27 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन पुरी |अनुवादक= |संग्रह=थार-सप...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सागर बणनै
उड़ावतो रेवूं...जळ भर्या बादळा।
रूतां मुजब
छीटां री ज्यांन बरसतो रेवूं
करसां री आंख्यां नै कुचरतो रेवूं।
भरनै बंध तळाव, कुआं-बावड़ी...
पावतो रेवूं पाणी...डांगर-ढोर अर गांव रा गांव।
बणनै घास, पात, रूंख।
धरती रो सिणगार करूं...।
करसाणी मनवार रा गीत बणनै
रम जाऊं भींतां रा होठा‘प...
अर गुणगुणायां जाऊं
घट्टी री छाकड़ी ज्यूं।
ऊनाळा री लाय में
सीली पुरवाई बण‘र
बैवतो रैवूं बायरी ज्यूं।
.... बणनै ताव सुळगबो करूं
स्याळां री ठाड़ में...
छूला री जळावण बणनै
फूंक्यो जावूं फूंकणी सूं...।
पिरथी नै ओढ़ावण रो
गाभो हुय जावूं... आभौ बण’र
नीन्दां में रळ‘र
आंख रा सुपन हो जाऊं
अन्धारी टाटी खोलती
किरणां बणनै...सबनै जगाऊं।
सूरज रो ब्याव
धरती रो मांडो हुय जाऊं
पावणी रा गीत अर
चड़ी चांच बण जाऊं....
जलम लेवता टाबर री
आंख्या उजाण बण‘र
फुदकबो करूं
बाळपणै ज्यूं....
अर आखरी बेळा
बण जाऊं मनचायी मौत...।