भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"म्हैं रेत रो पंखेरू / कन्हैया लाल भाटी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कन्हैया लाल भाटी }} [[Category:मूल राजस्था...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=कन्हैया लाल भाटी
 
|रचनाकार=कन्हैया लाल भाटी
 
}}
 
}}
[[Category:मूल राजस्थानी भाषा]]
+
{{KKCatRajasthaniRachna}}
{{KKCatKavita‎}}<poem>नीं जाणै क्यूं
+
{{KKCatKavita‎}}
 +
<poem>
 +
नीं जाणै क्यूं
 
आज लखावै ओ जग
 
आज लखावै ओ जग
 
म्हनै छोड़’र एकलो
 
म्हनै छोड़’र एकलो

14:04, 15 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण

नीं जाणै क्यूं
आज लखावै ओ जग
म्हनै छोड़’र एकलो
सूयग्यो हुवै
गैरी नींद में।
होळै-होळै चालती पून
म्हारै काणै मन में लखावै
जाणै उजाड़ जंगळ में
किणी मिंदर री फुरकती हुवै-
धजा !
राजकंवरो रो नौलखो
झपटो मार’र लेयगी चिलख
चिलख जिकी थोड़ी’क ताळ पैली
फुरूकै री जंगळ मांय
किणी री धजा दांई
राजकुंवरी री आंख्यां मांय
उपज्यो मून
चणचक खिंडगी कहूंक
एक-एक कर’र झड़ग्यो
सगळो जंगळ
अर बणग्यो मरुथळ।
सूनयाड़ अर मौत बिचाळै
कित्तो’क आंतरो
छटपटीजूं एकलो बण’र
म्हें रेत रो पंखेरू।