Last modified on 17 सितम्बर 2019, at 18:55

यंत्रणा का अन्तरलाप / यतीश कुमार

अतृप्ति का सोता लिए
दर-ब-दर भटकते लोग
सुख की तलाश में
अपने-अपने दुःख नत्थी कर चुके हैं

खून और पसीना
एक साथ बह रहा है

हवा का रवैया इतना पुरवैया है कि
सोखना-सुखाना तक मुश्किल...

इन दृश्यों के बीच
उस हर शख्स के पास एक कविता है
जिनके हाथों में है छेनी-हथौड़ा

वे पत्थरो पर निरंतर गढ़ रहे हैं शब्दों को...

समय ने उनको घिस कर
वह सिक्का बना दिया है
जो चलन से बाहर हो चुका है

उनका पसीना अब अलोना हो चुका है
और महावर ज़ियादा सुर्ख़

स्वेदार्द्र आँखों ने कोर पर
रोक रखी है अपनी धार
मुश्किलों को मुट्ठी में दबाए
वह सोने की कोशिश में मुब्तिला है

स्वप्न में भी निर्माण और ध्वंस
लहरों की विकल्प-आवृति सा
धार के साथ एकसार है..

इन सबके दरमियान
यंत्रणा का अन्तरलाप
घरों से निकल
एक-दूसरे के गले लग रहे हैं

इन सबके बीच
अपने एकांतवास से निकल
दर्द अब एक सामूहिक वक्तव्य है.