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यदि मुझे पकड़ लेंगे हमारे वे जानी दुश्मन / ओसिप मंदेलश्ताम

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यदि मुझे पकड़ लेंगे हमारे वे जानी दुश्मन
और मुझ से बात करना भी छोड़ देंगे सब जन

यदि मुझ से छीन लेंगे वे दुनिया के सारे सुख
और साँस भी न लेने देंगे, बन्द कर देंगे मुख

यदि मैं न कह पाऊँगा कि जीवन की होगी जीत
कि जनता ही होती है सदा महा-न्यायाधीश

यदि जानवरों की तरह वे मुझे रखेंगे बाड़े में बन्द
और ज़मीन पर फेंकेंगे वे, भोजन के टुकड़े चन्द

चुप नहीं बैठूँगा तब भी मैं, चीख़ूँगा हर वक़्त
दर्द नहीं सहूँगा तब भी मैं, खौलेगा मेरा रक्त

तब रचूँगा मैं वह सब, जो उस वक़्त रच पाऊँगा
शत्रु के गले का फन्दा बन कर, जन को जगाऊँगा

मेरी आवाज़ में होगा तब भी दस बैलों का ज़ोर
खोद डालूँगा अपने हल से यह काली धरती कठोर

डरी हुई अपनी जनता की आँखों के गहरे सागर में
अत्याचारी प्रबल-दमन के तानाशाही महासागर में

सुरसुराए चाहे कितना ही अपनी धमकियों से लेनिन
मेधा और जीवन को मारे, चाहे कितना ही स्तालिन

यह क़सम उठाता हूँ साथी मैं, तूफ़ान बन के आऊँगा
बचा सड़न से इस दुनिया को, फिर से नई बनाऊँगा

(रचनाकाल : 1937, वरोनिझ)