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यहाँ अभी भी कुछ बचा हुआ है-3 / तुषार धवल

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वह तो खेल रही है
अपने आप से मिट्टी से सड़क किनारे सलमान वाली ‘लैंड क्रूज़र’ के पहियों की ठीक बगल में जो नशे में मत्त हाथों से कभी भी उसकी सोयी रात में फुटपाथ पर चढ़ कर उसके कुनबे को नेस्तनाबूद कर सकती है. उसी की छाँह में बैठी लगभग उसी से खेलती वह कीटाणु सने हाथ अपने मुँह पर थपकारती हुई “आ अ आ अ ...” कुछ ‘गा’ रही है
यह उसी की भाषा है उसी का होना उसी का दुख उसी का खेल
धूल है लिथड़ा बदन है बदन पर पेशाब की गंध रूखे मरे पिलियाये बालों में जूँओं की फौज इधर अँगुली उधर खुजली किसी के फेंके पेपर प्लेट का फटा टुकड़ा हमारी बच्चियों के टेडी बियर, हॅना मोन्टाना या बार्बी डॉल से कम प्यारा नहीं है उसे इस वक़्त. एक खेल है जीवन!
एक खेल है जीवन इस वक़्त जो उसका खिलौना है अभी एक खेल होगा उसका जीवन जो किसी का खिलौना होगा कभी
वह भी माँ की दुर्गति दुहरायेगी

यही होता है
होता आया है हमारी नपुंसक बहसों के बीचों बीच जब हमारे खोखले विमर्शों को धकेलती आत्मश्लाघाओं का क्रूर संघर्ष नये आडम्बरों में प्रतिपादित हो रहा होता है.

यही होता है.
एक नदी उफनती हुई हमारे बीच से गुज़र जाती है और हम एक़्वा गार्ड की सर्विसिंग की फिकर में लगे रह जाते हैं. समय बीत जाता है.

यही होता है
कुनबे क़ौम क़ायनात कफन ओढ़ रहे होते हैं
और हमारी शॉपिंग खतम नहीं होती
हमें अदना बनाता एक शॉपिंग मॉल हमें ललकारता रहता है
जरूरतों का असीमित विस्तार डुबो देता है मानव बोध को उसके ‘मैं’ के उफान में

यही होता है
और
यही नसीब अब भी है हमारा सुनते हो वाम!
हम ---
जो तुम्हारे दायरे के भी बाहर धकेल दिये गये हैं सत्ता के नये विमर्श में.
हम अनसुने अनकहे अनजाने. हम नाकाफी किसी भी संदर्भ में ज्ञान में!
हाशियों की लिपि कोई नहीं पढ़ेगा हम कब की ध्वस्त सभ्यता हैं जुरासिक युग के तुम्हारी वर्तनी के बाहर!
“आ अआ आअ ... ते ते ति ति ताय ताय ... आ आ ...” गीत है यमक है हुमक का नाभि से उगता परा के स्वर सा उसकी धूल में निर्विकार है सर्वस्व “आ आ अम मम मम म्म म्म्म म्मा मा माँ माँ म मम्म माँ माँ”
“माँ” और वह बिलख उठी
आधी शटर गिरे ए.टी.एम के सिक्यूरिटी गार्ड की तरफ देखा सहम गई
इधर उधर देखा घबरा गई
माँ की महक नहीं थी कहीं भी ICICI के इंश्योरेंस की बकथेथरी में उसके ATM में
उसने सबको देखा उसे किसी ने नहीं (उसमें value था ही नहीं)
एक महिला ने दया दिखा कर उसके आगे पाँच का सिक्का डाल दिया एक काजू बर्फी भी
पर इसमें माँ कहाँ है?
माँ! और वह फूट फूट कर रो पड़ी
पैसों की खाद पर पनपता चमचमाता जीवन उसका नहीं है
कोई पैन नम्बर राशन कार्ड वोटर आई डी कोई आधार संख्या उसकी या उसकी माँ की नहीं कोई नागरिकता का प्रमाण नहीं कोई बर्थ सर्टीफिकेट उसके नाम का नहीं
कोई क्यों गिने जन्मा हुआ इंसान उसे उसकी तो पहचान ही नहीं आवाज़ तक नहीं
बस एक ही आवाज़ है “माँ” और वह दौड़ी आई पानी की एक बोतल लिये