http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AF%E0%A4%B9%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80_/_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2_%E0%A4%A7%E0%A4%B0&feed=atom&action=historyयही दीवाली / प्रांजल धर - अवतरण इतिहास2024-03-29T12:53:44Zविकि पर उपलब्ध इस पृष्ठ का अवतरण इतिहासMediaWiki 1.24.1http://kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%AF%E0%A4%B9%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80_/_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%B2_%E0%A4%A7%E0%A4%B0&diff=158757&oldid=prevअनिल जनविजय: '{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रांजल धर |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कुछ ...' के साथ नया पन्ना बनाया2013-08-16T06:21:46Z<p>'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रांजल धर |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कुछ ...' के साथ नया पन्ना बनाया</p>
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}}<br />
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<poem><br />
कुछ लोग इसी दीवाली में<br />
उस बस्ती के बाशिन्दे हैं,<br />
जहाँ दर्द की सीमा चुकती है<br />
और पाँव ठिठक रुक जाते हैं,<br />
जब दीपक सबके जलते हों,<br />
दीपक उनके बुझ जाते हैं ।<br />
<br />
उनकी पीड़ा का बोध उन्हें<br />
कितना खाली कर जाता है !<br />
सब ख़ुशियाँ मानो लुटी हुईं,<br />
उजड़ा जीवन चिल्लाता है ।<br />
<br />
कविता की सीमा !<br />
बाँध सकी कब भीतर उठती चीख़ों को,<br />
जो दिये बेचते रहते हैं<br />
उन बच्चों की बदहाली को ?<br />
सारी उदास ये कविताएँ<br />
कितनी अक्षम हो जाती हैं,<br />
देख वंचना की दुनिया<br />
बगिया के उजड़े माली को !<br />
<br />
रोशन करते वे जगप्रकाश<br />
पर दिये बेचते बच्चे ये,<br />
अन्दर से कितने हैं निराश;<br />
नयनों की उनकी कातरता -<br />
कितनी आहत यह मानवता<br />
सब इसी सृष्टि की रेखा है...<br />
निर्धनों के गहरे घावों को<br />
कब किस कविता ने देखा है !<br />
<br />
‘बाबू-बाबू’ चिल्लाते हैं,<br />
ये बच्चे कितने संकोची;<br />
सब व्यथा हृदय की सहते हैं<br />
है लोकतन्त्र यह ‘प्रगतिशील’<br />
ये राम भरोसे रहते हैं।<br />
<br />
रस, छन्द, बिम्ब क्या बाँधेंगे<br />
जीवन की इस परिभाषा को,<br />
ढहते जीवन की ढही हुई<br />
इस अन्तिम घोर निराशा को ?<br />
यह जगत प्रलय का आँगन है,<br />
बस इतना-सा अनुभव उनका<br />
जिसका उनको अन्दाज़ा है,<br />
इस सकल विश्व की निर्धनता ही<br />
सबसे गहरे पड़ोसी हैं<br />
सारे कष्टों के लिए सदा ही<br />
खुला यहाँ दरवाज़ा है !<br />
<br />
वही शाश्वत चिन्ता इनकी<br />
सतत धार ज्यों बहते जल की<br />
आँखों से निकलकर चलती है;<br />
परसों की दो सूखी रोटी<br />
ये दीवाली पर खाते हैं<br />
बस इतनी इनकी गलती है ।<br />
<br />
चीथड़े बदन पर फटेहाल<br />
दिन, माह, वर्ष और कई साल<br />
चिथड़ों में लिपटा जीवन यह<br />
चिथड़े इनकी ‘खुशहाली’ हैं<br />
ये चिथड़े इनकी होली हैं<br />
ये चिथड़े ही दीवाली हैं ।<br />
</poem></div>अनिल जनविजय