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यही दीवाली / प्रांजल धर

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कुछ लोग इसी दीवाली में
उस बस्ती के बाशिन्दे हैं,
जहाँ दर्द की सीमा चुकती है
और पाँव ठिठक रुक जाते हैं,
जब दीपक सबके जलते हों,
दीपक उनके बुझ जाते हैं ।

उनकी पीड़ा का बोध उन्हें
कितना खाली कर जाता है !
सब ख़ुशियाँ मानो लुटी हुईं,
उजड़ा जीवन चिल्लाता है ।

कविता की सीमा !
बाँध सकी कब भीतर उठती चीख़ों को,
जो दिये बेचते रहते हैं
उन बच्चों की बदहाली को ?
सारी उदास ये कविताएँ
कितनी अक्षम हो जाती हैं,
देख वंचना की दुनिया
बगिया के उजड़े माली को !

रोशन करते वे जगप्रकाश
पर दिये बेचते बच्चे ये,
अन्दर से कितने हैं निराश;
नयनों की उनकी कातरता -
कितनी आहत यह मानवता
सब इसी सृष्टि की रेखा है...
निर्धनों के गहरे घावों को
कब किस कविता ने देखा है !

‘बाबू-बाबू’ चिल्लाते हैं,
ये बच्चे कितने संकोची;
सब व्यथा हृदय की सहते हैं
है लोकतन्त्र यह ‘प्रगतिशील’
ये राम भरोसे रहते हैं।

रस, छन्द, बिम्ब क्या बाँधेंगे
जीवन की इस परिभाषा को,
ढहते जीवन की ढही हुई
इस अन्तिम घोर निराशा को ?
यह जगत प्रलय का आँगन है,
बस इतना-सा अनुभव उनका
जिसका उनको अन्दाज़ा है,
इस सकल विश्व की निर्धनता ही
सबसे गहरे पड़ोसी हैं
सारे कष्टों के लिए सदा ही
खुला यहाँ दरवाज़ा है !

वही शाश्वत चिन्ता इनकी
सतत धार ज्यों बहते जल की
आँखों से निकलकर चलती है;
परसों की दो सूखी रोटी
ये दीवाली पर खाते हैं
बस इतनी इनकी गलती है ।

चीथड़े बदन पर फटेहाल
दिन, माह, वर्ष और कई साल
चिथड़ों में लिपटा जीवन यह
चिथड़े इनकी ‘खुशहाली’ हैं
ये चिथड़े इनकी होली हैं
ये चिथड़े ही दीवाली हैं ।