भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह आजादी नगरों की / राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह आजादी नगरों की हैं, भारत का गाँव गुलाम है
सत्ता पूंजी के महापर्व में, भूखा भारत का राम है।
मरघटम बने गाँव ये सारे
फसलों से है सूनी धरती
छिनती किसान के मुंह से रोटी
श्रम निष्ठों की किस्मत परती
विधवा हुई मांग खुशियों की
गलियों में सन्नाटा है
घर के धंधे खत्म हुए सब
मिल मालिकों को बांटा है
आज गाँव की लक्ष्मी का मिल में हुआ मुकाम है
यह आजादी नगरों की है, भारत का गाँव गुलाम है।
गांधी का बलिदान हुआ है
नवयुग का निर्माण कूतने
यह आजादी आई है
इन गाँवों में प्राण फूंकने
 ये भारत के गांव कि जिनसे
भारत का अस्तित्व बना है
हैं इतने दयनीय कि इनका
होगा राज महज सपना है
गाँधी के भक्तों के द्वारा गाँधी का नीलाम है।
यह आजादी नगरों की है, भारत का गांव गुलाम है
आजादी का पर्व आज
नगर में वैभव उछल रहा
उद्घाटन भाषण भोजों की
मस्ती में शासन मचल रहा
मालिक भूखा है नंगा है
ये नौकर खुशी मनाते हैं
गाँवों के अंधियारे के बल
दीपावली रचाते हैं।
मेहनत का अपमान सरासर पूँजी का बस दाम है
यह आजादी नगरों की है भारत का गाँव गुलाम है।