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यह कविता समय / नील कमल

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चिड़िया की चोंच में दबा
तिनका,
सर्दियों के मौसम में बर्फ़
के नीचे दबा फूल का
पराग,
डूबते आदमी के फेफड़े की
बची-खुची हवा,
मिट्टी की तह में दबी
वह सदाबहार दूब,
तिनका,
पराग,
हवा,
दूब, अर्थात यह कविता समय

इस कविता समय में
कितना मुश्किल है
कविता को बचाए रखना
किसी ज़रूरी चीज़ की तरह
ठीक वैसे, जैसे कि
चिड़िया के लिए घोंसला,
अच्छे मौसम के लिए फूल,
ज़िन्दगी के लिए हवा और
हरियाली के लिए दूब

क्योंकि बुरे वक़्त में
काम आते नहीं सिर्फ़
जमा किए खाद्यान्न,
पुराने वस्त्र,
पुरानी छत,
पुराने पड़े हथियार
बुरे वक़्त में काम आती हैं
पुरानी कविताएँ भी

इस कविता समय में
याद करता हूँ
खिलज़ी के दरबार में
तोता-ए-हिंद
जिसके महबूब के घर
रंग का उत्सव हुआ करता था,

नीमबाज़ आँखों का वो महबूब शायर
जो रोते-रोते सो गया था,
काशी का वह जुलाहा
जलती लुकाठी लिए खड़ा
बीच बाज़ार

रंग,
आँसू,
आग, किसका है यह कविता समय
किसके पीछे हो लूँ मैं,

कौन है मेरे पीछे
क्या पता
उस जनपद के कवि के पीछे-पीछे
ताल्स्ताय और साइकिल का कवि कितनी दूर चला,

मैं आश्वस्त होना चाहता हूँ
कि इस कविता समय में
चिड़िया ले आती है तिनके,
हर मौसम में खिलते हैं फूल
डूबते आदमी के दम में हवा
बची है
और मिट्टी में उगती है दूब

चिड़िया,
फूल,
आदमी,
मिट्टी, ये सब, हाँ यही सब
आने वाले दिनों में
बचाएँगे कविता को ।