भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह कैसा अस्तित्व? / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:50, 14 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कविता भट्ट |अनुवादक= |संग्रह= आज ये...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्वप्निल निशा सोती आँखें
देख रही थी सोच रही थी मैं

कुछ गतिशील होता जीवन मेरा भी
परिभाषित होता नाम मेरा भी
किनारे लुढ़कते पत्थरों को ठोकरें मारती
दिख गया मन्दिर एक तभी
चढ़ी सीढ़ियाँ पार की
भटकती रही बड़ी देर यूँ ही
अँधियारी सी एक मूरत दिखी तभी
किंतु यह क्या?
मूरत एकांकी, खण्डित और अधूरी
सम्भवतः नर के साथ नहीं थी नारी
शंकर के साथ नहीं थी शक्ति या गौरी
बस सभी पूज रहे थे मात्र ‘गौरी-शंकर‘
गौरी पहले पीछे शंकर
पर यह क्या मूरत तो बस शिव की

तो फिर प्रश्न उठा मेरे मन में कि
यह कैसा अस्तित्व गौरी का?
तो फिर क्या हो सकता था
मुझ सी साधारण नारी का