Last modified on 22 अगस्त 2009, at 03:46

यह दिन / सरोज परमार

अंगीठी में दहकते कोयलों को
देखने का अभिनय करती
बक्त को चबाने का अभिनय करती हूँ।
दर्द का मार्फिया सूँधे,
कब से
बेहोश पड़े हैं दिन
मर क्यों नहीं जाते यह दिन।
अब कुछ हो नहीं पाता मुझसे
कुछ करने के लिए
मौसम नहीं मन चाहिए ।
मन अब भुलाते भूल बैठा है ।
इन्द्रधनुश को देख ललचाता नहीं ।
जानता है
उधार लिए रंगों से सपने नहीं रंगे जाते ।
मेरा मन सब्ज़ों का खज़ाना था
जो पत्थर के भाव बिक गये
मेरे लिये
वोडका और पानी के गिलास
में कोई फर्क नहीं रह गया है।