Last modified on 6 अगस्त 2009, at 19:20

यह नगरी महँ परिऊँ भुलाई / जगजीवन

यह नगरी महँ परिऊँ भुलाई।
का तकसीर भई धौं मोहि तें, डारे मोर पिय सुधि बिसराई॥
अब तो चेत भयो मोहिं सजनी ढुँढत फिरहुँ मैं गइउँ हिराई।
भसम लाय मैं भइऊँ जोगिनियाँ, अब उन बिनु मोहि कछु न सुहाई॥
पाँच पचीस की कानि मोहि है, तातें रहौं मैं लाज लजाई।
सुरति सयानप अहै इहै मत, सब इक बसि करि मिलि रहु जाई॥
निरति रूप निरखि कै आवहु, हम तुम तहाँ रहहिं ठहराई।
'जगजीवन' सखि गगन मँदिर महँ, सत की सेज सूति सुख पाई॥