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यह नदी हमारी भी / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र
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बचपन में देखी थी भरी-भरी
बूढ़ा गये
यह नदी हमारी भी सूख गयी
रेत हुए घाटों पर
झुर्रियाँ उगीं
चेहरे मुरझाये
पानी का नाम
सिर्फ लेने को
मरे सभी बरगद के साये
शीशे के गुंबज में गूँज भरी
आहों की
सीपी के सीने में ऊब नई
खुलती थी खिड़की जो
जादुई हवेली की
बंद हुई
माथे के कोनों पर
नर्म हाथ छू गये
चुभी सुई
भोली गौरैया के नीड़ में
धूप झरी
फिर सूखे पत्ते हैं कई-कई