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नीचे यह महामौन की सरिता
दिग्विहीन बहती है ।
 
यह बीच-अधर, मन रहा टटोल
प्रतीकों की परिभाषा
आत्मा में जो अपने ही से
खुलती रहती है ।
 
रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,
पुरुषों के हर वैभव में ओझल
अपौरुषेय मिलता है ।
 
मैं एक, शिविर का [प्रहरी, भोर जगा
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :
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