Last modified on 10 नवम्बर 2020, at 23:19

यह रात नहीं ही रीते / रामगोपाल 'रुद्र'

यह रात नहीं ही रीते, तो कितना अच्छा!

जिसमें पाकर बिन्‍दुल बंधन,
दृग से छूटा मेरा मृग-मन
बन आता है घन की चितवन
बरसात नहीं ही बीते, तो कितना अच्छा!

जिसमें तारे मेरे मन के
ढुल आते हैं नभ से छनके,
उस हिमनिशि को, चित्रक बनके,
मधुप्रात नहीं ही चीते, तो कितना अच्छा!

जीते खुलकर जो दुख जी में,
हारे बँधकर तो सुख ही में;
पाँखों की आँखमिचौनी में
जलजात नहीं ही जीते, तो कितना अच्छा!