Last modified on 4 सितम्बर 2009, at 21:07

यह राहे—महब्बत है गर अज़्मे—सफ़र रखिए / सुरेश चन्द्र शौक़

यह राहे-महब्बत है गर अज़्मे-सफ़र<ref>सफ़र का इरादा</ref> रखिए

फ़ौलाद<ref>इस्पात </ref> का दिल रखिए, पत्थर का जिगर रखिए


हालात ये कहते हैं, हालात सुधरने का

इम्कान<ref>संभावना</ref> नहीं कोई, उम्मीद मगर रखिए


किस तरह लगाते हैं इक चेहरे पे सौ चेहरे

इस दौर में जीना है तो यह भी हुनर रखिए


उफ़ कैसी तगो—दौ<ref>दौड़-धूप</ref> है पल भर की नहीं फ़ुर्सत

क्या खुद से कभी मिलिए क्या अपनी ख़बर रखिए


इस दौरे—सियासत में हर कोई ख़ुदा ठहरा

रखिए भी तो किस किस की दहलीज़ पे सर रखिए


हर राहनुमा<ref>नेतृत्व करने वाला</ref> आखिर रहज़न<ref>लुटेरा</ref> ही निकलता है

किस किस पे नज़र रखिए किस किस की ख़बर रखिए


एहसासे—तमन्ना को छू पाए न शय<ref>वस्तु</ref> कोई

अब दिल के घरौंदे में दरवाज़ा न दर रखिए


क्या जाने सफ़र में कब पड़ जाए तलब मय की

इक आध सुराही भी हमराहे—सफ़र रखिए


इक फ़र्ज़ का रस्ता है,इक राह महब्बत की

दिल में है अजब उलझन अब पाँव किधर रखिए


चलते हों सभी जिस पर उस राह पे चलना क्या

औरों से अलग कुछ तो ‘शौक़’! अपनी डगर रखिए.


शब्दार्थ
<references/>