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यह रोड़े-कंकड़-सा जो कुछ हम अटपटा सुनाते हैं / राजेन्द्र गौतम

यह रोड़े-कंकड़-सा जो कुछ हम अटपटा सुनाते हैं
गीतों की इनसे नई एक हम सड़क बनाते हैं।

फिर सुविधाओं के रथ पर चढ़ कर
आएँ आप आज मजे से
फिर जय-जयकारों के मुखड़े हों
दोनों ओर सजे से

हम टायर के जूतों-से छीजे सम्वेदन पहने हैं
आक्रोशी मुद्रा -- तारकोल भी हमी बिछाते हैं।

हम हैं कविता के राजपथिक कब
हम तो अन्त्यज हैं
स्वागत में रोज़ बिछा करते हैं
हम केवल रज हैं

लेकिन जितना भी डामर है इस पथ पर बिछा हुआ
सब रक्त स्वेद अपना ही इसमें स्वयं मिलाते हैं।

हम जिन हाथों को किए हुए हैं
पीछे सकुचा कर
उनकी ही रिसती उँगलियों ने
तोड़े हैं पत्थर

तुम तो जा बैठे हो अधिकारों की मीनारों पर जाकर
पर झोंपड़ियों में छन्दों के हम दीप जलाते हैं।