भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

याचना / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तपा-तपा कर कंचन कर दे ऐसी आग मुझे दे देना !
 सारी खुशियाँ ले लो चाहे,तन्मय राग मुझे दे देना !


मेरे सारे खोट दोष सब ,लपटें दे दे भस्म बना दो ,
लिपटी रहे काय से चिर वह ,बस ऐसा वैराग्य जगा दो !
रमते जोगी सा मन चाहे भटके द्वार-द्वार बिन टेरे ,
 तरलित निर्मल प्रीत हृदय की बाँट सकूँ ज्यों बहता पानी ,
जो दो मैं सिर धरूं किन्तु विचलन के आकुल पल मत देना


सारे सुख सारे सपने अपनी झोली में चाहे रख लो,
  ऐसी करुणा दो अंतर में रहे न कोई पीर अजानी !
 सहज भाव स्वीकार करूँ हो निर्विकार हर दान तुम्हारा,
शाप-ताप मेरे सिर रख दो ,मुक्त रहे दुख से हर प्राणी !
जैसा मैंने पाया उससे बढ़ कर यह संसार दे सकूँ ,
निभा सकूँ निस्पृह अपना व्रत बस इतनी क्षमता भर देना !


आँसू की बरसात देखना अब तो सहा नहीं जायेगा ,
दुख से पीड़ित गात देख कर मन को धीर नहीं आयेगा !
इतनी दो सामर्थ्य व्यथित मन को थोड़ा विश्राम दे सकूँ
लाभ -हानि चक्कर पाले बिन मुक्त-मनस् उल्लास दे सकूँ
सुख -दुख भेद न व्यापे ऐसी लगन जगा दो अंतर्यामी ,
और कहीं अवसन्न मनस्थिति डिगा न दे वह बल भर देना !


 ऐसी संवेदना समा दो हर मन मन में अनुभव कर लूं
बाँटूँ हँसी जमाने भर को अश्रु इन्हीं नयनों में भर लूं !
हँसती हुई धरा का तल हो जग-जीवन हो चिर सुन्दरतर !
हो प्रशान्त निरपेक्ष-भाव से पूरी राह चलूँ मन स्थिर !
सिवा तुम्हारे और किसी से क्या माँगूँ मेरे घटवासी ,
जीवन और मृत्यु की सार्थकता पा सकूँ यही वर देना !


दो वरदान श्रमित हर मुख पर तृप्ति भरा उल्लास छलकता
निरउद्विग्न हृदय से ममता ,मोह ,छोह न्योछावर कर दो !
अंतर्यामी ,विनती का यह सहज भाव स्वीकार करो तुम
उसके बदले चाहे मेरी झोली अनुतापों से भर दो
मेरे रोम-रोम में बसनेवाले मेरे चिर-विश्वासी,
हर अँधियारा पार कर सकूँ मुझको परम दीप्त स्वर देना !