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यात्रा-कथा / रश्मि भारद्वाज

मैंने अपनी देह सहेजी
और आत्मा को प्रताड़ित किया
उसे अक्सर विषाद के खौलते तेल में तड़पता छोड़ दिया
या आँसुओं के खारेपन में डूब जाने दिया,
स्मृतियों के गहन वन में भटकती
वह भूलती गयी वापसी का रास्ता,
अपना अनंत संगीत विस्मृत कर
वह लयहीन हुई कामनाओं के आलाप से

मेरी देह मेरी आत्मा की यातना कक्ष थी
और उसका क्रूर प्रहरी था तुम्हारा शरीर
किसी वधिक की तरह उसकी हर कोमलता के आखेट में,

मेरी यत्न से सँवारी गयी देह
कुटिलता से उघार देती थी हर बार
आत्मा की सभी नील- खरोंचे
किसी अन्य के राग में डूबा शरीर
वैरागी हो गया था अपने ही मन से
अपनी ही आत्मा का चिर शत्रु बना
बेरहमी से गिनता था उसके घाव

अब जब शेष हैं प्रेम की अस्थियाँ
उन्हें चुनता मेरा घायल शरीर
जब भी कराहता है अदम्य पीड़ा से
उसे शरण देने के लिए शेष रहती है
सिर्फ़ मेरी आत्मा की कोख