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यात्रा मर्म / संगीता कुजारा टाक

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कुछ कविताएँ हैं
जो ढूँढ रही हैं अपना वज़ूद
कुछ मेरी सोचों में
दबी पड़ी हैं
कुछ कविताएँ मेरे दिल की जमीन में हैं
अँकुर जाने की कोशिश में
कुछ मेरे विस्फारित होठों पर हैं
थरथराती हुई
तो कुछ फिसलना चाहती हैं
मेरी उँगलियों से ...

सोचती हूँ
अगर इसी क्षण
मैं मर जाऊँ तो?

तो मेरी लाश के साथ
जल जाएँगीं ये कविताएँ भी
और बहा दी जाएगी
इनकी राख भी
मेरी राख के साथ-साथ नदी में / गंगा में या फिर स्वर्णरेखा में /
मिलेंगीं ये कविताएँ भी सागर में
मेरी राख के साथ,
इस सागर से
फिर उठेगें बादल
फिर बरसेंगी
कविताएँ भी

मैं रहूँ न रहूँ
मैं आऊँ
या न आऊँ
कविताएँ करेंगीं
अपना वर्तुल पूरा
कि, कविताओं को पता है
नैसर्गिक यात्रा का मर्म!