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यादों के गुंचे / नीता पोरवाल

जमीं में दबी हुई जड़ें!
खुली हवा में ना जी पाने का

बादलों के जब मर्जी आये
बरस जाने का

पत्तियों के बूँदें ढुलका देने का
शिकवा नहीं करती कभी

आँखें मूंदे वे जब भी याद करती हैं
गए दिनों की बारिशें

हौले से टांक देती है
अपनी शाख पर
एक और शोख नरम पत्ती

यादों के गुंचे हरी पत्तियों की शक्ल में
नज़र आते हैं शाखों पर...