भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यादों में यादों का एक शहर छूटा / रवि सिन्हा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:16, 13 जनवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवि सिन्हा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यादों में यादों का एक शहर छूटा
दरिया के उस पार अकेला घर छूटा

सात समन्दर पार चले चलते आये
चिलमन के उस पार दीद-ए-तर छूटा

पीछे देखूँ तो पत्थर हो जाऊँगा
मंसूबों का आतिश-ज़दा<ref>जिसमें आग लगी हो (in flames)</ref> नगर छूटा

ऐसी नींद कि सपने सारे दफ़्न हुए
धरती कुछ इस तरह मिली अम्बर छूटा

मुस्तक़्बिल<ref>भविष्य (future)</ref> का नक़्शा खेंचा काग़ज़ पर
क़ाइद<ref> रहनुमा, नेता (leader)</ref> के पैरों से यहीं सफ़र छूटा

मिट्टी की बुनियाद सभी ता'मीरों<ref>संरचना (structure)</ref> की
मे'मारों<ref>शिल्पी, राजमिस्त्री (architect, mason)</ref> का फिर भी देख असर छूटा

उछल कूद ये कर लेंगें अब बेतरतीब
लफ़्ज़ों से क़ाफ़िये<ref>तुकांत (rhyme); बहर (bahr) - छंद (meter in poetry)</ref> बहर का डर छूटा

शब्दार्थ
<references/>

<ref></ref>