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याद की सुब्ह ढल गई शौक़ की शाम हो गई / 'शमीम' करहानी

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याद की सुब्ह ढल गई शौक़ की शाम हो गई
आप के इंतिज़ार में उम्र तमाम हो गई

पी है जो एक बूँद भी जाग पड़ी है ज़िंदगी
ऐसी शराब-ए-जाँ-फ़ज़ा कैसे हराम हो गइ्र

साथ किसी ने छोड़ कर तोड़ दिया किसी का दिल
चल तो पड़ा था कारवाँ राह में शाम हो गई

निकले ब-याद-ए-मै-कदा तारों के साथ साथ हम
जाम तक आ के ज़िंदगी माह-ए-तमाम हो गई

रास न आई ज़ीस्त को सुब्ह-ए-बहार की हवा
अहल-ए-जुनूँ की अंजुमन ख़ल्वत-ए-जाम हो गई

आज वो मुस्कुरा दिए आज हमारी ज़िंदगी
आग से फूल बन गई फूल से जाम हो गई

बज़्म से बे-ज़बाँ उठे राह में गुफ़्तुगू न की
कैसे हमारी दास्ताँ शहर में आम हो गई

रात की जश्न-गाह पर ओस पड़ी है नींद की
बाद-ए-सहर न जाने क्यूँ महव-ए-ख़िराम हो गई

सुन ली ज़बान-ए-ख़ल्क़ से हम ने ग़ज़ल ‘शमीम’ की
कौन सी ख़ास बात है किस लिए आम हो गई