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याद फिर आने लगी हैं वे सुहानी रातें / गीत गुंजन / रंजना वर्मा

याद फिर आने लगी हैं वो सुहानी रातें ।
मन को है छेड़ रही फिर भी पुरानी बातें॥

कितना प्यारा था जो वह बचपन जो खेल लेता था
एक मुस्कान से हर दुख को ठेल देता था।
जिस की मुट्ठी के कंकड़ों में थे हीरे मोती
सारे अपमान जो हँस हँस के झेल लेता था।

 सहमी-सहमी नहीं पड़ती थीं बितानी रातें।
मन को फिर छेड़ रही हैं वो पुरानी बातें॥

एक हँसी सारी नेमतों से बड़ी लगती थी
रूठ जाते थे तो आंखों से झड़ी लगती थी।
अब तो हँसते हैं न रो सकते हैं खुल कर हम तुम
तब मुसीबत भी बड़े सुख की घड़ी लगती थी।

अधखुली आंखों में बनती थी न पानी रातें।
मन को फिर छेड़ रही हैं वो पुरानी बातें॥

पा के बरसात का मौसम थे उमड़ते बादल
बोल कजरी के गूँज उठते थे करते घायल।
और जब फूलती सरसों थी विहँसता फागुन
शोख मस्ती में थिरक उठती थी रुत की पायल।

मस्तियां ले कर महकती थीं जवानी रातें।
मन को फिर से छेड़ रही हैं वो पुरानी बातें॥

अब जफ़ाओं के भी उपहार दिए जाते हैं
खून रिसता है मगर फिर भी जिए जाते हैं।
जो मसीहा है वही छीन रहे हैं खुशियाँ
दर्द के प्यालों में हम जहर पिये जाते हैं।

अब तो खुद पर ही है हँस हँस के निभानी रातें।
मन को फिर छेड़ रही हैं वो पुरानी बातें॥

थक के सोया है खुदा राम दूर हैं शायद
ख़ुशी सुकून के पयाम दूर हैं शायद।
अब तो रहबर की राइफल का रुख इधर ही है
इन से इंसानियत के नाम दूर है शायद।

जागने के लिये फिर हैं हमें पानी रातें।
मन को है छेड़ रही फिर वह पुरानी बातें॥