Last modified on 6 सितम्बर 2016, at 01:30

याद है मुझे, आज भी / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास

याद है मुझे,
राजा था मैं तब बेबीलोन का,
और थी तुम मेरी दासी,
शाम के झुटपुटे ने धुंधला दिया था जिन मीनारों को
और दिन में बन गए थे जो मैदान कबूतरों के लिए,
विलीन हो गए अब वे सब धुयें की तरह नीले बादलों में,
पर मिलना तो था हमें दुबारा,
क्योंकि जानता था मैं,
“आऊँगी, जरुर आऊँगी” कहा था तुमने,
हज़ारों साल पहले, समय की इन्हीं वादियों में।

आज सुबह ही तो देखा था,
जब चहचहा रही थी चिड़ियों का एक झुंड
मिश्र के उस नीले आसमान में
जानता था उन्हें, दूध की तरह थे सफ़ेद
उड़ गये थे वे फिर
और विलीन हो गए थे उस विस्तीर्ण आकाश में.
क्योंकि प्यार किया था मैंने।

खो चुका था जिसे हज़ारों साल पहले
नाच उठी वह आज मेरे आँसुओं के सागर पर,
बुलबुलों पर, थरथराती – सुन रहा था मैं उसे!
और सुन रहा था संगीत, क्या हुआ अगर कमजोर था मैं।
पुकारा तो था उसे बार-बार
उस सुनसान काले अँधेरे से उसे निकाल ले चलने किसी रोशनी की ओर।

आज कौन हैं ये औरतें मुझे घेरे हुए,
मेरी पलकों, हाथों, बालों को सहलाती हुयी?
खामोशियों की गूँज सी आयी थी वो याद दिलाती हुयी मेरे वज़ूद को,
और फिर गुम हो गई थीं कहीं पलक झपकते ही।
और (उन्हीं सुनसान रातों में) एक बच्चे के जैसे सो जाता हूँ,
अपने को अपने में ही समेट कर।