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यार को महरूम-ए-तमाशा किया / मुस्तफ़ा ख़ान 'शेफ़्ता'

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यार को महरूम-ए-तमाशा किया
मर्ग-ए-मुफ़ाजात ने ये क्या किया

आप जो हँसते रहे शब बज़्म में
जान को दुश्मन की मैं रोया किया

अर्ज़-ए-तम्न्ना से रहा बे-क़रार
शब वो मुझे मैं उसे छेड़ा किया

सर्द हुआ दिल वो है ग़ैरों से गर्म
शोले ने उल्टा मुझे ठंडा किया

मेहर-ए-क़मर का है अब उन को गुमान
आह-ए-फ़लक-सैर ने ये क्या किया

उन को मोहब्बत ही मैं शक पड़ गया
डर से जो शिकवा न अदू का किया

देखिए अब कौन मिले ख़ाक में
यार ने गर्दूं से कुछ ईमा किया

हसरत-ए-आग़ोश है क्यूँ हम-किनार
ग़ैर से कब उस ने किनारा किया

चश्म-ए-इनायत से ब़ची जाँ मुझे
नर्गिस-ए-बीमार ने अच्छा किया

गै़र ही को चाहेगे अब ‘शेफ़्ता’
कुछ तो है जो यार ने ऐसा किया