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या रब न हो किसी को यूँ हिर्स-ए-आरजू भी / जगत मोहन लाल 'रवाँ'

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या रब न हो किसी को यूँ हिर्स-ए-आरजू भी
अरमान भी न निकला दिल हो गया लहू भी

इस दिल को क्या कहूँ मैं ज़िद्दैन का है तालिब
लज़्ज़त तलाश की है मिलने की आरज़ू भी

दीवानगी पे मेरी हँसते हैं अहल-ए-बातिन
चाक-ए-जिगर भी चाहूँ करता रहूँ रफ़ू भी

अब शीशा ओ सबू क्या साक़ी भी रो रहा है
रौनक़ थी मय-कदे की मस्तों की हाए-ओ-हू भी

तस्कीन क़ल्ब मुज़्तर फ़िक्र तलाश से थी
लेकिन ‘रवाँ’ मिटा अब वो लुत्फ़-ए-जुस्तुजू भी