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युग-पंक : युग-ताप / हरिवंशराय बच्‍चन

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दूध-सी कर्पूर-चंदन चाँदनी में

भी नहाकर, भीगकर

मैं नहीं निर्मल, नहीं शीतल

हो सकूँगा,

क्‍यों कि मेरा तन-बसन

युग-पंक में लिथड़ा-सना है

और मेरी आत्‍मा युग-ताप से झुलसती हुई है;

नहीं मेरी ही तुम्‍हारी, औ' तुम्‍हारी और सबकी।

वस्‍त्र सबके दाग़-धब्‍बे से भरे हैं,

देह सबकी कीच-काँदों में लिसी, लिपटी, लपेटी।


कहाँ हैं वे संत

जिनके दिव्‍य दृग

सप्‍तावरण को भेद आए देख-

करूणासिंधु के नव नील नीरज लोचनों से

ज्‍योति निर्झर बह रहा है,

बैठकर दिक्‍काल

दृढ़ विश्‍वास की अविचल शिला पर

स्‍नान करते जा रहे हैं

और उनका कलुष-कल्‍मष

पाप-ताप-' भिशाप घुलता जा रहा है।


कहाँ हैं वे कवि

मदिर-दृग, मधुर-कंठी

और उनकी कल्‍पना-संजात

प्रेयसियाँ, पिटारी जादुओं की,

हास में जिनके नहाती है जुन्‍हाई,

जो कि अपनी बहुओं से घेर

बाड़व के हृदय का ताप हरतीं,

और अपने चमत्‍कारी आँचलों से

पोंछ जीवन-कालिमा को

लालिमा में बदलतीं,

छलतीं समय को।

आज उनकी मुझे, तुमको,

और सबको है जरुरत।

कहाँहैं वे संत?

वे कवि हैं कहाँ पर?-

नहीं उत्‍तर।


वायवी सब कल्‍पनाएँ-भावनाएँ

आज युग के सत्‍य से ले टक्‍करें

गायब हुई हैं।

कुछ नहीं उपयोग उनका।

था कभी? संदेह मुझको।

किन्‍तु आत्‍म-प्रवंचना जो कभी संभव थी

नहीं अब रह गई है।

तो फँसा युग-पंक में मानव रहेगा?

तो जला युग-ताप से मानव करेगा?

नहीं।

लेकिन, स्‍नान करना उसे होगा

आँसुओं से- पर नहीं असमर्थ, निर्बल और कायर,

सबल पश्‍चा के उन आँसुओं से,

जो कलंको का विगत इतिहास धोते।

स्‍वेद से- पर नहीं दासों के, खरीदे और बेचे,-

खुद बहाए, मृत्तिका जिसे कि अपना ऋण चुकाए।

रक्‍त से- पर नहीं अपने या पराए,

उसी पावन रक्‍त से

जिनको कि ईसा और गाँधी की

हथेली और छाती ने बहाए।