Last modified on 8 मार्च 2021, at 23:41

युग की गंगा / केदारनाथ अग्रवाल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:41, 8 मार्च 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कविता अंश
युग की गंगा
पाषाणों पर दोडे़गी ही
लम्बी , ऊंची
सब प्राचीन डुबायेगी ही
नयी बस्तियाँ
शान्ति निकेतन
नव संसार बसायेगी ही