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युद्ध से लौटा पिता / दीनू कश्यप

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बच्चे ख़ुश होते हैं
महान‌ और सुरक्षित समझते हैं
जब लौटता है
युद्ध से उनका सिपाही पिता।

बारी-बारी गोद में बैठते हैं वे
पिता के ख़ुरदरे चेहरे को
नन्हीं उगलियों के पोरों से छूते हुए
वे लाड़ जताते हैं
अपनी-अपनी समझ से
करते हैं प्रश्न-

दुश्मन कैसा होता है पापा
गोली भागती है कितनी तेज़
क्या दुश्मन देश
में होते हैं खरबूजे

पिता उनको पसंद के
जवाब देता है
वे पूछते रहते हैं बराबर-

क्या टैंक ख़ुद ही
चढ़ जाता है टीलों पर
कैसे लाँघी जाती हैं
चौड़ी गहरी नदियाँ
दुश्मन देश की तितलियाँ
कैसी होती हैं पापा


पिता उकताता नहीं प्रश्नों से
बाहों में समेट कर चूमता है उन्हें

बड़ा लड़का पूछता है-
क्या खाने-सोने के लिए
फौजी लौट आते हैं बैरको में
क्या अंधेरा घिरते ही
कर दी जाती है लड़ाई बंद

तब पिता बख़ानता है
मुस्कुराते हुए
सिलसिलेवार
सबसे भयानक- सबसे त्रासद
सब से कठिन-सबसे यतीम
युद्ध में बिताए
अपने समय को।

लेकिन बच्चे हँसते नहीं
भय से उनकी आँखों के डेले
फैलने लगते हैं

बच्चों का यह रूप
पिता को कतई पसंद नहीं
सबसे छोटे को बहलाते हुए
पिता गढ़ता है कथा

जब मैं पहुँचा सीमा पार के गाँव
सबसे पहले मिली
हलवाई की दुकान
वहाँ थी
गुलाब जामुनों की कड़ाही

बड़ा व मँझला चुटकी लेते हैं
आहा! छुटके के गुलाब जामुन

मँझला पूछता है-
आपने कितने खाए पापा

अरे, खाता क्या
मुझे छुटके की याद आई
मैने पौचेज़ और पिट्ठु से
गोलियां फैंक दी
उन में भर दिए गुलाब जामुन

तभी दुश्मन ने गोलीबारी शुरू कर दी
पिट्ठू और पौचेज छलनी हो गए
गोलियों को ठण्डा किया खांड की पात ने
गोलियों को रोका ग़ुलाब जामुनो ने
मैं तो बच गया
लेकिन ग़ुलाबजामुन मारे गए

बच्चे सम्वेत कहते हैं
कोई बात नहीं... कोई बात नहीं...
तो छुटके के ग़ुलाबजामुनों ने बचाया आपको


पिता हाँ भरता है
छुटका पिता की मूँछो में
पिरोने लगा है
अपनी नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ।