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युद्ध / सुदर्शन प्रियदर्शिनी


युद्ध के विशाल
जबड़ों मै
समां जाती हैं
संस्कृतियाँ -
सभ्यताए -एवं
मानवता --
परस्पर द्वेषों
के प्रहार -
मानसिक -विकृतियों
की -अन्वितियाँ
और न जाने कितने
नृशंस -प्रतिशोध --
 सीमायों तक
नही -सीमित रहते
ये युद्ध ......
घर -घर घुस कर
हुमकते हैं
इन के हुंकारे
एवं अहमक
प्रहार ---
लील लेते हैं
यह सिंढूर
और ममता की
मीठी गोद
और रह जाता है
केवल बचे हुए
क्षणों का
अपरिमित बोझ