यूँ तुझे ढूँढने निकले की ना आये खुद भी
वो मुसाफ़िर की जो मंजिल थे बजाये खुद भी
कितने ग़म थे की ज़माने से छुपा रक्खे थे
इस तरह से की हमें याद ना आये खुद भी
ऐसा ज़ालिम की अगर ज़िक्र में उसके कोई ज़ुल्म
हमसे रह जाए तो वो याद दिलाये ख़ुद भी
लुत्फ़ तो जब है ताल्लुक में की वो शहर-ए-जमाल
कभी खींचे, कभी खींचता चला आये खुद भी
ऐसा साक़ी हो तो फिर देखिये रंग-ए-महफ़िल
सबको मदहोश करे होश से जाए खुद भी
यार से हमको तग़ाफ़ुल का गिला क्यूँ हो के हम
बारहाँ महफ़िल-ए-जानां से उठ आये खुद भी