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यूँ तो अनुमति दे देता हूँ अधरों को तुम हास सजा लो / संदीप ‘सरस’

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यूँ तो अनुमति दे देता हूँ अधरों को तुम हास सजा लो,
सच तो यह है जनम-जनम से आँसू से रिश्तेदारी है।

अभिसंचित है उनसे सागर, पगली सरिताओं को भ्रम है।
क्या जाने सागर का आँचल, अपने ही आँसू से नम है।

सरिताओं ने लाख उड़ेली मृदुता अपनी ही बलि देकर,
यह कैसी पीड़ा है अब तक सागर का पानी खारी है।1।

कुछ रिश्ते झूठे पकड़े थे, मुट्ठी से वे फ़िसल गये हैं।
कुछ सपने झूठे देखे थे, नींद खुली तो निकल गये हैं।

जेबें हल्की होती हैं तो, वज़न बात का कम होता है,
वैभव का स्वामी हो उसकी बातों की कीमत भारी है।2।

पाने को तो कुछ आँसू है खोने को सारा सागर है।
कहने भर को ही धरती है गर छूना हो तो अम्बर है।

लावारिस झूठे सपनों को छाती से भींचे बैठा हूँ,
मेरा मन अंधों की नगरी में दर्पण का व्यापारी है।3।