Last modified on 20 नवम्बर 2013, at 22:29

यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई / गुलाम मोहम्मद क़ासिर

सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:29, 20 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाम मोहम्मद क़ासिर }} {{KKCatGhazal}} <poem> य...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई
इक चारा-गर के शहर में जा कर भटक गई

ख़ुश्बू गिरिफ़्त-ए-अक्स में लाया और उस के बाद
मैं देखता रहा तेरी तस्वीर थक गई

गुल को बरहना देख के झोंका नसीम का
जुगनू बुझा रहा था की तितली चमक गई

मैं पढ़ा था चाँद को इंजील की तरह
और चाँदनी सलीब पे आ कर लटक गई

रोती रही लिपट के हर संग-ए-मील से
मजबूर हो के शहर के अंदर सड़क गई

क़ातिल को आज साहब-ए-एजाज़ मान कर
दीवार-ए-अदल अपनी जगह से सरक गई