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यूँ भी बीमार ही थे दिल भी लगा बैठे हम / गौरव त्रिवेदी

यूँ भी बीमार ही थे दिल भी लगा बैठे हम,
नींद भर का था सुकूँ वो भी लुटा बैठे हम

उफ़ के जब शाम भी है जाम भी है यादें भी,
कैसे महफ़िल से चले जाएं बिना बैठे हम?

और फिर कुछ भी नहीं देख सके हम जबसे,
अपनी आँखों को तेरे ख़्वाब दिखा बैठे हम,

दिल से इक तुझको भुलाने के सफ़र में जानाँ,
कितने अश'आर ज़माने को रटा बैठे हम,

दिल में हर वक़्त तेरी याद जला करती थी,
और उस आग में घर अपना जला बैठे हम