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यूँ ही न मेरे ख़्वाब का पैकर बदल गया / ज्ञान प्रकाश पाण्डेय

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यूँ ही न मेरे ख़्वाब का पैकर बदल गया,
वो पुरतसन्नो शह्र का परतौ था छल गया।

ये शौके-शह्रगर्दी तो मुझमें न थी मगर,
अंदर था मेरे कौन जो इतना मचल गया।

पहले तो आईना ही मुझे खींचता रहा,
आँखें खुलीं तो क़ुर्ब का मंज़र बदल गया।

चेह्रा ये किसका है वो ख़दो-ख़ाल क्या हुए,
कोई तो आईना मेरे घर का बदल गया।

कैसे बतायें सुब्ह का चेह्रा था कैसा 'ज्ञान',
इतना सियाह था कि अँधेरा दहल गया।