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ये आँसू ही मेरा परिचय।
मेरे प्राण! अधूरे सपने!
अब तुम मेरे पास न आओ,
बार-बार मेरे जीवन में
नहीं आस के दीप जलाओ।
 मैंने सीख लिया जीवन में-
हँसी-खुशी का करना अभिनय।
चाही थीं कुछ स्वर्णिम साँझें मुझे मिले दुरूस्‍वप्‍न दुरूस्वप्न भयंकर, जब सपनों से डरकर जगता सत्य भयावह मिलता बाहर। मैंने अपने ही हाथों से -
सींचा मन में पौधा विषमय।
घायल करता पीड़ित रव-स्वर पर पीर सहे चुपचाप कौन? मेरे लिये नहीं अब सपने होने लगता अंतर व्याकुल राजा बस है तो यह दुख का पर्वत, जगते सुधि जहाँ मेघ टकराते मन के स्वर तोड़ मौन? दुख ढलता नित आँसू बनकर।और नित्य होते हैं आहत।भंडार मगर इसका यहाँ नहीं दिख सकता सूरजकुहरा दुख का छाया अक्षय।
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