Last modified on 27 फ़रवरी 2011, at 14:39

ये कद-काठी के मेले में लबादा क्या करे / गौतम राजरिशी

Gautam rajrishi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:39, 27 फ़रवरी 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ये कद-काठी के मेले में लबादा क्या करे
डरे फर्ज़ी, चले टेढ़ा तो प्यादा क्या करे

आते-आते ही आएगी हरियाली तो अब
कि सूखे पत्ते मौसम का तगादा क्या करे

सिंहासन खाली कर दो अब कि जनता आती है
सुने जो नाद कवि का, शाहज़ादा क्या करे

करे जिद ननकु फिर से घुड़सवारी की, मगर
ये बूढ़ी पीठ झुक ना पाए, दादा क्या करे

गँवाये नींद ग़ालिब और न सोए उम्र भर
तो इसमें ख़्वाबों वाला फिर वो वादा क्या करे

बने हों बटखरे ही खोट लेकर जब यहाँ
तो कोई तौलने में कम-ज़ियादा क्या करे

कड़ी है धूप राहों में ये सुनकर ही भला
गिरे खा ग़श, वो मंज़िल का इरादा क्या करे

{मासिक हंस, मार्च 2009}